नई दिल्ली। 1499 ईस्वी में जब गुरु नानक देव जी 30 साल के हो गए थे, तब उनमें अध्यात्म परिपक्व हो चुका था। आज जिसे हम पवित्र गुरुग्रंथ साहिब के नाम से जानते हैं, उसके शुरुआती 940 शबद नानक जी के ही हैं। आदिग्रंथ की शुरुआत मूल मंत्र से होती है, जिसमें हमारा ‘एक ओंकार’ से साक्षात्कार होता है। मान्यता है कि गुरु नानक देव जी अपने समय के सारे धर्मग्रंथों से भली-भांति परिचित थे। उनकी सबसे बड़ी सीख थी- हर व्यक्ति में, हर दिशा में, हर जगह ईश्वर मौजूद हैं। जीवन के प्रति उनके नजरिए और सीख इन चार किस्सों के जरिये आसानी से समझी जा सकती हैं-
ईश्वर हर दिशा में हैं
नानक जी ने एक नजीर से बता दिया- खुदा हर जगह है: मक्का पहुंचने से पहले नानक देव जी थककर आरामगाह में रुक गए। उन्होंने मक्का की ओर पैर किए थे। यह देखकर हाजियों की सेवा में लगा जियोन नाम का शख्स नाराज हो गया और बोला-आप मक्का मदीना की तरफ पैर करके क्यों लेटे हैं? नानक जी बोले- ‘अगर तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा, तो खुद ही उनके पैर उधर कर दो, जिधर खुदा न हो।’ नानक जी ने जियोन को समझाया- हर दिशा में खुदा है। सच्चा साधक वही है जो अच्छे काम करता हुआ खुदा को हमेशा याद रखता है।
ईश्वर हर व्यक्ति में है
बुरे लोगों को एक जगह रहने, अच्छों को फैलने का आशीर्वाद: नानक अपने शिष्य मरदाना के साथ लाहौर यात्रा पर थे। जब वे कंगनवाल पहुंचे तो वहां के लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया। नानक जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया- बसते रहो मतलब इसी गांव में आबाद रहो। दूसरे गांव के लोगों ने उनका काफी सत्कार किया। गांववालों को नानक जी ने आशीर्वाद दिया- उजड़ जाओ। मरदाना ने पूछा ऐसा क्यों? नानक जी बोले-ईश्वर हर व्यक्ति में हैं- बुरे लोग एक जगह रहें, ताकि बुराई न फैले और अच्छे हैं वो सभी दिशाओं में जाकर बसें ताकि अच्छाई का प्रसार हो।
ईश्वर हर कण में है
पश्चिम में अर्घ्य देकर कहा, पानी प्यासे खेतों तक जाएगा: नानक जी हरिद्वार गए, वहां लोगों को गंगा किनारे पूर्व में अर्घ्य देते देखा। नानक इसके उलट पश्चिम में जल देने लगे। लोगों ने पूछा- आप क्या कर रहे हैं? नानक जी ने पूछा, आप क्या कर रहे हैंं? जवाब मिला, हम पूर्वजों को जल दे रहे हैं। नानक जी बोले-‘मैं पंजाब में खेतों को पानी दे रहा हूं।’ लोग बोले- इतनी दूर पानी खेतों तक कैसे जाएगा? इस पर नानक जी बोले- जब पानी पूर्वजों तक जा सकता है, तो यह खेतों तक क्यों नहीं जाएगा? मानो तो ईश्वर यहां मौजूद हर कण और हर व्यक्ति में है।’
ईश्वर का ही सबकुछ है
ग्राहक को अनाज देते वक्त जाना अपना कुछ भी नहीं: गुरु नानक देवजी को आजीविका के लिए दूसरों के यहां काम भी करना पड़ा। बहनोई जैराम जी के जरिए वे सुल्तानपुर लोधी के नवाब के शाही भंडार की देखरेख करने लगे। उनका काम हिसाब रखना भी था। यहां का एक प्रसंग प्रचलित है। एक बार वे तराजू से अनाज तौलकर ग्राहक को दे रहे थे तो गिनते-गिनते जब 11, 12, 13 पर पहुंचे तो उन्हें कुछ अनुभूति हुई। वह तौलते जाते थे और 13 के बाद ‘तेरा फिर तेरा और सब तेरा ही तेरा’ कहते गए। इस घटना के बाद वह मानने लगे थे कि ‘जो कुछ है वह परमबह्म्र का है, मेरा क्या है?’
सिख और हिंदू ऐसे जुड़े हैं जैसे नाखून और मांस (सिख धर्म के इतिहासकार खुशवंत सिंह की किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ से)
सिख धर्म के इतिहासकार और लेखक खुशवंत सिंह ने दो खंडों में छपी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ में लिखा है कि सिख धर्म की जड़ें सनातन ग्रंथों, जैसे गीता और वेदांत में देखी जा सकती है। गीता के दूसरे अध्याय का 21वां श्लोक है-
‘न जायते मृयते वा कदाचि त्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतोयम पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।’
यानी आत्मा न जन्म लेती है न मरती है न ही वह भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्र में फंसती है। यह शाश्वत है इसलिए शरीर की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए। ऐसी ही भावना आदिग्रंथ में देखने मिलती है। नानक जी ने मनुष्यों में जाति, धर्म, प्रांत से परे होकर एकसाथ भोजन करने की परंपरा को आगे बढ़ाया और इसी तरह से गुरु के लंगर की परंपरा शुरू हुई। इसीलिए बिना भय के ‘िकरत करो, वंड छको और नाम जपो’ की शिक्षा दी।
खुशवंत सिंह कहते हैं कि सिखों का एक वर्ग बड़ी मेहनत करता है सिख धर्म को हिंदू धर्म से अलग बताने के लिए। 1604 ईस्वी में संग्रहित किए गए आदिग्रंथ के हवाले से खुशवंत सिंह बताते हैं कि 15028 बार ईश्वर का नाम लिया गया है, जिसमें 8000 से अधिक बार उन्हें हरि के नाम से पुकारा गया। 2533 बार राम के नाम से पुकारा गया है और अनेक बार प्रभु, गोपाल-गोविंद, परब्रह्म जैसे उपनामों से इंगित किया गया है।
1606 में गुरु अर्जन की शहादत के बाद सिख धर्म के दृष्टिकोण में बदलाव आया। हिंदू-सिख आपस में ऐसे जुड़े माने गए, जैसे नाखून और मांस जुड़े होते हैं। एक साथ रोटी खाने के साथ-साथ एक-दूसरे के परिवारों में बेटी ब्याहने को भी उत्तम माना गया। यही परंपरा आज भी दिखती है।