देहरादून । ढोल को सृष्टि का प्राचीनतम् वाद्य कहा गया है। वेदों, पुराणों महाभारत तथा रामायण में इसका उल्लेख मिलता है। ढोल को सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही
धारण किया और संसार के सृजन का क्रम ढोल नाद से हुआ। जिस प्रकार वेद सर्वप्रथम ब्रह्माजी के मुख से निकले उनका विधिवत् आलेखन एवं विभाजन कर उन्हें चार वेदों का स्वरूप वेद व्यास जी के द्वारा दिया गया। कहा जाता है कि भगवान शिव ने ढोल की रचना सृष्टि के पश्चात सृजन से पूर्व की निष्तब्धता भंग करने के लिए की थी। जिस समय भगवान शंकर और महाशक्ति देवी पार्वती के बीच में ढोल सम्बन्धि संवाद चल रहा था, उस समय वहाँ पर श्रोता है रूप में एक व्यक्ति औजी (ढोल वादक) वहाँ उपस्थित था जिसने ढोल सम्बन्धि सारे संवाद-वृतांत को ध्यान से सुना और कंठस्थ किया।
इस प्राचीन ढोल विद्या की परम्परा को पारंगत बाजगीयों ने मौखिक रूप से पीड़ी दर पीड़ी आगे बढ़ाया। इस कार्य में ‘औजी‘ एक जाति विशेष के समुदाय ने ढोल विद्या को धािर्मक अनुष्ठानों, मांगलिक कार्यों, उत्सवों, मेलों, मंडाण अथवा सामाजिक व सांस्कृतिक पर्वों पर बजाकर अपना विशेष योगदान दिया है। ढोल मंगल की कामना करने वाला व अमंगल को हरने वाला है। इसलिए ढोल का अध्यात्मिक महत्व है। सन् 1913 में ‘ढोल सागर का संग्रह‘ स्व0 राय साहब पं0 ईश्वरी दत्त घिल्डियाल जी, तहसीलदार साहब के प्रयत्न से संभव हो सका। पं0 ईश्वरी दत्त जी ढोल विधा में पांरगत थे। उनके सहयोगी स्व0 पं0 गिरिजा दत्त नैथानी तथा पं0 भोलादत्त जी काला के सहयोग से पं0 ब्रह्मानन्द जी थपलियाल ने ’बद्री-केदार प्रेस’ पौड़ी से प्रकाशित किया। शनैः शनैः इस विद्या पर लोक संस्कृति के विद्वानों ने क्रमशः अबोद्ध बन्धु बहुगुणा और मोहन लाल बाबुलकर ने समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में ढोल विद्या पर अनेकों लेख प्रकाशित कर जिज्ञासू पाठकों तक इस विद्या को पहुँचाया। इसी क्रम में स्व0 पं0 केशव अनुरागी जी ने ढोल सागर पर बहुत ही बारीकी से शोध किया और उसकी अध्यात्मिक महत्ता उसकी पद्धति उसके बोल और शब्द के साथ-साथ उसके विभिन्न भागों का वर्णन अपने अप्रकाशित शोध ग्रंथ ढोल सागर में संग्रहित किया। किन्तु अक्समात् उनकी मृत्यु से यह अधूरा शोध थम गया। लेकिन उनकी इस महान कृति का संयोजन कार्य स्व0 डा0 शिवानन्द नौटियाल जी ने पूर्ण किया। किन्तु आज भी इसका पूर्ण स्वरूप व विधान पूर्ण नहीं है। अपितु डा0 शिवानन्द नौटियाल जी ने अपनी किताब ‘गढवाल के लोकगीत ‘ में पं अनुरागी जी द्वारा संग्रहित उनका प्रयोगआत्मक अध्ययन प्रकाशित किया और कुछ समय बाद यह ‘नाद – नन्दिनि‘ नामक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया गया जो कि वर्तमान में बाजार में उपलब्ध है।
इस पुस्तक में स्वं0 पं अनुरागी जी ने विस्तृत प्रकाश डाला जो आज, युवाओं के लिए प्रेरणा का श्रोत है तथा जिज्ञासु पाठकांे व कला प्रेमियों के लिए मार्ग-दर्शन है। स्व0 अनुरागी जी का इस विद्या पर बहुत बड़ा योगदान है।
ढोल कोे ईश्वर पुत्र कहा गया है। ढोल तांबे की धातु का बना होता है जिसके विभिन्न अंग क्रमशः कंदोंटी (स्कन्द पट्टिका) चाक पट्टिका से लगा कुण्डलों, पूड़, बिजैसार (पीतल की पट्टिका) कुण्डली, कसणी, डोरी, लाकुड़ (बजाने की लगड़ी) आदि। ढोल सागर में इनका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। इसके जो भी अंग-प्रत्यंग है। ये किसी न किसी के पुत्र हैं। यानि इनके आकार है। यहाँ तक कि उससे निकलने वाला नाद (स्वर) भी वायु पुत्र है। यदि वायुमण्डल न हो तो नाद कैसे गूंजेगा?
ढोल को अध्यात्मिक या दैविय स्वरूप देने के लिए ढोल सागर के रचयिता ने उसकी डोरियों को ब्रह्मा का पुत्र कहा गया है, तो बजाने वाली डण्डियों को भीमपुत्र, चमड़े की पूड़ को विष्णु पुत्र, कण्डलों को नाग पुत्र तो कन्धों पर डालने वाले कंदोलियों को कुर्म पुत्र और कस्णियों को गुणियों से उत्पन्न बताया। ढोल का सहायक वाद्य है। दमामा जिसका ढोल के साथ चोली दामन का साथ है अर्थात् दमामा के बिना ढोल अधूरा है। यह ढोल के साथ आवश्यक रूप से बजाया जाता है जो कि ढोल का सहायक वाद्य कहलाता है। गढ़वाल में इसको ‘दमौ‘ कहते है। बिना दमौ की संगत के ढोल अधूरा लगता है। दमौ भी तांबे की धातु का बना होता है। इसकी बनावट अर्धगोलाकार कटोरे जैसे होती है जिसका व्यास लगभग 18 इंच होता है। इसको जमींन में रखकर या चलते समय खड़े होकर गले में डालकर बजाया जाता है। ‘नाद‘ का शास्त्रीय ग्रन्थ है ‘ढोल सागर‘ जिसमें ढोल बजाने के नियम तथा पद्धतियों का सूक्षम वर्णन किया गया है। उत्तराखण्ड में ढोल वादन की प्रमुख चार शैलियाँ है जिनमें बडे़, धंुयेल, शब्द और रहमानी का विशेष महत्व है।
बैठे (बधाई)- शुभ मांगलिक कार्यों पर जैसे पुत्र जन्म, विवाह के अवसर पर शुभ कामना या बधाई के रूप में बजाई जाती है।
धंुयेल– प्रायः संध्या समय देव पूजन के रूप में बजाई जाती है।
शबद- देव शक्ति को जगाने व बारात के आने की सूचना देने के लिए बजाया जाता है। ढोल बजाने में लय के उत्थान, अवरोध, उत्तेजन और विश्रािन्त के सधन रूप को प्रकट करता है।
नौबत- पुराने समय में राज दरबारों में वीरता और शौर्यता के लिए बजाया जाता था किन्तु आज भी यह चलन मण्डाणों में देखने को मिलता है। रात्री के अंतिम प्रहर में मंगल कार्यों के लिए भी यह बजाया जाता है। रहमानी- यह ताल मार्ग में चलते-चलते ढोल बजाने की कला का नाम है। विशेष रूप से यह बारात ले जाते समय वर यात्रा में बजाया जाता है। पंडित केशव अनुरागी जी ने ढोल विद्या की उपरोक्त तालों का वर्णन एंव सपष्टिकरण “नाद-नंदनि” में विस्तृत रूप से किया है। इस विद्या पर आज हम जितना भी अध्ययन करें या लिखें शायद कम होगा। एक बात तो सत्य है कि ढोल विद्या के बाजगीयों का किसी समय एक विशेष स्थान होता था चूंकि इस विद्या पर ये परम्परागत पांरगत थे इनके वादन और ओजस्वी वाणी के समावेश से धार्मिक अनुष्ठानों की शोभा होती थी जिनके आहवान से देवी-देवता प्रसन्न होकर प्रकट हो जाते थे। आज भी इनके वंशज इस विद्या की अलख परम्परागत निभाते चले जा रहे है। किन्तु उपेक्षित होकर। आज हमारे समाज में अपनी मूल संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य संस्कृति की और अग्रसर युवा एक चिन्तन का विषय है। आज आवश्यकता है इस विद्या के बाजीगरों को सम्मान देनेे की उन्हें प्रोत्साहन देने की जिससे आज हमारी पारम्परिक विलुप्त होती ढोल-विद्या का संरक्षण व संवर्धन हो सके।
(मणी भारती)
लोक कलाकार