तम कब होगा कम

lalit-sauryबड़ी जोर शोर के साथ दीप जले। घर, मुहल्ला, गली, गली रौशन। दीपावली में दीप जलाने का संकल्प। केवल दीप जलाने का। तम भगाने का नहीं। तम तो दीये के नीचे जस का तस गरबा खेल रहा है। फिर काहे का रौशन जग, काहे की रौशनी। ये तो केवल आँख को चौधियाती रौशनी है। जिससे उजास कम, आँखों के आगे अन्धकार ज्यादा छा जाता है। आखिर कब तक हम खुद को पप्पू बनाते रहेंगे। त्यौहारों की असल सीख अपनाएंगे। तम है अब भी सैकड़ो वर्षों से दीप जलाने के बावजूद। तम से लड़ाई भी तो हो। ख़ुशी केवल दीप जलाने की है। हौंसला तम से लड़ने का कहाँ। आज व्याप्त है अन्धकार चारों ओर। घर के भीतर, मन के भीतर ।

तम है अनाचार का, व्यभिचार का, दुराचार का। तम है लूट का, घोटालों का, साजिशों का, गरीबी का, आतंगवाद का, नक्सलवाद का, कुपोषण का। तम है बेजा दलीलों का, अनर्गल बहसों का, आरोपों का, बयानबाजी का। भ्रम है तो केवल उजाले का। दीप जलाने का। उजास फैलाने का। रुदालियों को अनसुना कर मुस्कराहट और अट्टहासों को सुनने का। अब दीप जले तो उसके तल से भी अन्धकार मिटे। दीप का उद्देश्य केवल उजास न हो दीप में सामर्थ्य अन्धकार के विनाश की हो।

तम को कम करने का संकल्प लिये दीप जलें। निराशा के अन्धकार का मर्दन आशाओं के प्रकाश से हो। क्या ऐसा हो पायेगा ? या फिर पड़े रहेंगे तम की गोद में असहाय। अब दीप आडंबर न बनें, दीप केवल प्रकाश का जरिया न बनें, ये निमित्त बनें मन के अन्धकार को दूर करने का। समाज का अन्धकार, नागरिकों को दिखे तो सही। हम मस्त हैं अपने घर के उजालों से। गरीब की चौखट का तमस, हमें क्यों नहीं डराता। भूखे पेट का अन्धकार, हमारे भरे पेटों में खलबली क्यों नहीं मचाता। लड्डू की महक, तब विचलित क्यों नहीं होती जब गरीबी अपने छौने को सूख चुके स्तनों से सटा कर सोने का प्रयास  करती है। अरे अबकी दीप जलाओ तो ऐसा की मात दे तम को,दूर करे गम को, आनंद दे हमको।

– ललित शौर्य

 

पहाड़ के हाड़

hill

(1)

दरकती चट्टानों के नीचे
पल रहे हैं परिवार
नेताजी कहते हैं

समृद्ध हो रहा है
पहाड़

(2)

रोटी की आश
पानी की प्यास
उनका हाई टेक दून
पहाड़
ख़ब्यास का ख़ब्यास

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