देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून के आश्रम सभागार में प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं भावपूर्ण भजनों का भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। आज भी ऐसा ही कार्यक्रम आयोजित हुआ। असंख्य भक्त श्रद्धालुगणों की उपस्थिति में संस्थान के प्रचारकों द्वारा नश्वर संसार की असंख्य उपलब्धियों के बीच जीवन निर्वाह कर रहे मानव के भीतर व्याप्त संतोष तथा धैर्य रूपी अमूल्य गुणों पर आख्यान देते हुए इनके महत्व को रेखांकित किया गया।
सदैव की भांति कार्यक्रम को भजनों की प्रस्तुति देते हुए आरम्भ किया गया। मंचासीन संगीतज्ञों ने मधुर तान छेड़कर भक्तों को ईश्वरीय प्रेम मंे भाव विभोर कर दिया। ‘‘मेरी पापों से भर गई गगरिया, गगरिया उतारो मेेरे राम…….’’, ‘‘मुझे कौन पूछता था तेरी बन्दगी से पहले, मैं तुम्हीं को ढ़ूंढ़ता था इस ज़िन्दगी से पहले……’’, ‘‘मेरी अंखियां हरि दर्शन को प्यासी……’’ तथा ‘‘बीच भवंर में है नइय्या, बन जाओ श्याम खिवय्या……’’ इत्यादि भजन प्रस्तुत किए गए।
भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया।
भजनों के उपरान्त भक्तजनों के ऊपर अपनी दिव्य वाणी के द्वारा अमृत वर्षा करते हुए सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी सुश्री ममता भारती जी ने बताया कि मानव मन विकट लालसाओं से भरा हुआ है इसमें व्याप्त लालसाओं, अभिलाषाओं, इच्छाओं तथा महत्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं है। मन के भीतर उठने वाली एक इच्छा की पूर्ति होती है तो तत्काल ही दूसरी इच्छा सर उठाने लगती है। इच्छाओं की पूर्तियों का अम्बार लग जाने के बाद भी यह मन सदा असंतुष्ट ही बना रहता है। तृष्णाओं के मकड़जाल में उलझा मानव मन शांति और सुख से अपनी अनन्त दूरियां बना लिया करता है। महापुरूषों ने संतोष रूपी धन को ही सर्वोपरि बताते हुए इसे सुख और शांति का धोतक बताया है। वे कहते हैं- संतोषी सदा सुखी। मनुष्य की यह एक बड़ी विडम्बना ही है कि वह सुख और शांति को बाहर ही ढंूढ़ता फिरता है जबकि वास्तविकता तो यह है कि चिर स्थाई सुख एवं अखण्ड शांति कहीं बाहर नहीं अपितु मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है। उस व्यक्ति से बड़ा कोई कंगाल नहीं जिसके पास संसार की समस्त उपलब्धियां विद्यमान हैं परन्तु फिर भी वह तृष्णाओं की दौड़ में निरंतर दौड़ता चला जा रहा है। महापुरूषों ने तो धनवान मात्र उसे माना जो प्रत्येक परिस्थिति में ईश्वर का शुक्र करते हुए संतोष रूपी धन से मालामाल है। महापुरूष फरमाते हंै-
तृष्णावन्त जग में दुखी आठों प्रहर कंगाल
जिन पायो सन्तोष धन सो जन मालोमाल
भगवान की शाश्वत् भक्ति जब जीव के जीवन मेें उतरती है तब जाकर वह सद्गुणों का वरण कर पाता है। शाश्वत् भक्ति परम गुरू के श्री चरणों में समर्पण के बाद ही आती है। भगवान सद्गुणों की खान हैं और उनकी भक्ति, उनके ध्यान करने के उपरान्त उनके सद्गुण जीव के भीतर अपना प्रभाव दिखलाने लगते हंै। पूर्ण सद्गुरू के पास एक आलौकिक दिव्य तकनीक हुआ करती है जिसे आध्यात्मिक भाषा में ‘ब्रह्म्ज्ञान’ कहा जाता है। ब्रह्म्ज्ञान वह भारतीय सनातन वैदिक ज्ञान है जिसे पूर्ण गुरू अपने शिष्य को प्रदान करके उसकी दिव्य दृष्टि को खोल दिया करते हैं, दिव्य दृष्टि के अनावृत होते ही शिष्य को अपने अंर्तजगत में परमात्मा का दर्शन हुआ करता है, यह दर्शन ही उसकी शाश्वत् भक्ति का आधार बनकर उसे ध्यान की गहराईयों में उतारा करता है। इस शाश्वत् भक्ति को निरन्तर अपने गुरू की आज्ञा में चलते हुए जब शिष्य किया करता है तब वह ईश्वरीय गुणों का आर्विभाव अपने जीवन में स्पष्ट अनुभव करने लगता है। संतोष रूपी सद्गुण का भी जीव के जीवन में तभी पदार्पण हुआ करता है। ईश्वर से विलग मनुष्य ही समूचा जीवन घोर अशांति और अनेक दुखों के भंवर में फंसा रहता है, उसका जीवन अधिक से अधिक संग्रह करने में ही व्यर्थ चला जाता है और उसका संग्रह दूसरों के ही काम आया करता है। राम नाम का धन ही मात्र वह धन है जो इंसान के साथ जाता है। कबीर साहब इस पर कहते हैं-
कबीरा सब जग र्निधना धनवन्ता नहीं कोए
धनवन्ता सोई जाणिए जा पे राम नाम धन होए
दीपावली पर बाहर ही नहीं ‘भीतर’ भी ‘प्रकाश’ करना होगा- स्वामी शिवानन्द जी
आश्रम के प्रचारक स्वामी श्री शिवानन्द जी ने अपने उद्बोधन में उपस्थित संगत को दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि वास्तविक रूप से दिवाली तभी सार्थक है जब जीव अपने भीतर व्याप्त अज्ञानता के अंधकार को ज्ञान के दीप से प्रकाशित कर पाए। दीपावली का सुन्दर अर्थ ही है- दीपकों की आवली (श्रंखला) यह श्रंखला बाहर के अंधकार को तो हर सकती है परन्तु भीतर के अंधकार को हरने के लिए गुरू ज्ञान रूपी अनन्त प्रकाश की अखण्ड श्रखलाओं को प्रकाशित किए जाने की आवश्यकता है। पटाखों के ध्वनि प्रदूषण और पर्यावरण की क्षति को दीपावली नाम नहीं दिया जा सकता। इनसे बचने की जरूरत है। भारत वर्ष में सभी त्यौहार दिव्य संदेशों से ओत-प्रोत हैं, इनसे सीख लेने की आवश्यकता है। शास्त्रानुसार भगवान श्री राम चैदह वर्षों के वनवास को पूर्ण कर और रावण वध के उपरान्त विभीषण को लंका का साम्राज्य सौंप जब अपनी भार्या जनकी जी एवं अनुज लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटते हैं तो अयोध्या वासी उनके आगमन की खुशी में सम्पूर्ण अयोध्या को दीपों की आवली (श्रंखलाओं) से सजाते हुए प्रकाशित करते हैं। यह एक दिव्य आध्यात्मिक संदेश भी है कि जब सद्गुरू के द्वारा मनुष्य के अयोध्या रूपी शरीर में श्री राम पधारा करते हैं तो वहां भी अनन्त प्रकाश अपनी दिव्य आभा बिखेरा करता है।
उल्लेखनीय है कि दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के द्वारा 9 नवम्बर से 17 नवम्बर 2016 तक परेड ग्राउण्ड, देहरादून में भव्य स्तर पर श्रीमद् भागवत् कथा ज्ञान यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। कार्यक्रम का समय सायं 4 बजे से रात्रि 8 बजे तक का है। सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या भागवत् भाष्कर मानस मर्मज्ञ कथा व्यास साध्वी विदुषी सुश्री आस्था भारती जी व्यास पीठ पर आसीन होकर नव दिवसीय कथा अमृत की वर्षा भक्तजनों पर किया करेंगी। श्रीमद् भागवत् कथा ज्ञान यज्ञ के उपलक्ष्य में कथा से एक दिवस पूर्व दिनांक 08 नवम्बर 2016 को सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा एक विशाल मंगलमयी कलश यात्रा निकाली जाएगी जो कि सम्पूर्ण नगर की परिक्रमा करते हुए कथा स्थल पर सम्पन्न होगी। कार्यक्रम में प्रत्येक दिवस संगत के लिए संस्थान द्वारा भण्डारे की भी व्यवस्था की गई है।
आज के सत्संग प्रवचनों को प्रसाद का वितरण करके विराम दिया गया।