वाशिंगटन। चंद्रमा पर उल्कापिंडों की वर्षा के कारण उसकी सतह के नीचे मौजूद बहुमूल्य पानी को नुकसान पहुंचा और इस वजह से गहन अंतरिक्ष में सतत दीर्घावधि वाली मानवीय खोज के कार्य में संभावित स्रोत को नुकसान पहुंचा है। नासा के शोधकर्ताओं ने यह जानकारी दी है। इस संबंध में विकसित वैज्ञानिक मॉडल में संभावना जताते हुये कहा गया है कि यह हो सकता है कि उल्कापिंडों के गिरने से चंद्रमा पर मौजूद पानी, भाप बनकर उड़ गया हो, हालांकि वैज्ञानिक ने इस विचार को पूरी तरह से जांचा नही हैं। नासा और अमेरिका के जॉन्स होपकिंस यूनिवर्सिटी अप्लायड फिजिक्स लेबोरेट्री के शोधकर्ताओं को नासा के लूनर एटमॉसफेयर एंड डस्ट एनवायरनमेंट एक्सप्लोरर (एलएडीईई) द्वारा एकत्रित आंकड़े से ऐसी कई घटनाओं का पता चला।
एलएडीईई एक रोबोटिक अभियान था। इसने चंद्रमा की कक्षा में परिक्रमा करते हुए चंद्रमा के विरल वायुमंडल की संरचना तथा चंद्रमा के आसमान में धूल के प्रसार के बारे में विस्तृत जानकारी जुटायी। यह अध्ययन ‘नेचर जियोसाइंसेज’ में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन के मुख्य लेखक अमेरिका में नासा के गॉडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के मेहदी बेन्ना ने कहा, ‘‘हमें ऐसी कई घटनाओं का पता चला है। इन्हें उल्कापिंडीय धारा के नाम से जाना जाता है। हालांकि वास्तविक रूप से चौंकाने वाली बात यह है कि हमें उल्कापिंड की चार धाराओं के प्रमाण मिले हैं, जिनसे हम पहले अनजान थे।’’ इस बात के साक्ष्य हैं कि चंद्रमा पर पानी और हाइड्राक्सिल की मौजूदगी रही है। हालांकि चंद्रमा पर पानी को लेकर बहस लगातार जारी है।
अमेरिका में नासा के एम्स रिसर्च सेंटर में एलएडीईई परियोजना के वैज्ञानिक रिचर्ड एल्फिक ने कहा, ‘‘चंद्रमा के वायुमंडल में पानी या हाइड्र्रॉक्सिल की उल्लेखनीय मात्रा नहीं रही है।’’ एल्फिक ने एक बयान में कहा, ‘‘लेकिन जब चंद्रमा इनमें से किसी उल्कापिंडीय धारा के प्रभाव में आता है तो इतनी मात्रा में वाष्प निकलती है कि जिसका हम पता लगा सकते हैं। घटना पूरी होने पर पानी या हाइड्रॉक्सिल भी गायब हो जाते हैं।’’इसमें आगे कहा गया है कि पानी को सतह से बाहर निकालने के लिए उल्कापिंडों को सतह से कम से कम आठ सेंटीमीटर नीचे प्रवेश करना होता है।